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गर फिरदौस बर रूए ज़मीन अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त” अमीर खुसरो की यह पंक्तियां कुछ ही शब्दों में कश्मीर को बयां कर देती हैं, वह कहते हैं कि धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर है। कश्मीर को लेकर आज हम केवल विवादों की जानकारी तक सीमित है, कश्मीर का इतिहास भी उतना ही शानदार है। आजादी से पहले और उसके बाद भी भारतीय इतिहास में कश्मीर की बहुत बड़ी भूमिका रही है। चलिए आपको बताते हैं कश्मीर के इस शानदार इतिहास के बारे में और साथ ही sher e kashmir राजनेताओं ने कश्मीर को लेकर क्या भूमिका निभाई आपको सारी जानकारी बताएंगे I
Sher e Kashmir किसे कहते हैं

शेख अब्दुल्ला को शेर ए कश्मीर कहा जाता है। उनका जन्म 5 दिसंबर 1905 को श्रीनगर में हुआ था। कहा जाता है कि उनके पिता पैदाइशी ब्राह्मण थे, उन्होंने अपना धर्म बदलकर इस्लाम स्वीकार कर लिया था।
Sheikh abdullah ने अपनी शिक्षा जम्मू कश्मीर से प्राप्त की और उसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में एमएससी किया। शेख अब्दुल्ला जब अपनी पढ़ाई खत्म करके कश्मीर आए उस समय कश्मीर में राजा हरि सिंह महाराज थे।
अब्दुल्ला ने कश्मीर में राजतंत्र पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था, अब्दुल्ला का कहना था कि कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक है लेकिन मुसलमानों के पास किसी भी तरह का अधिकार नहीं है।
अब्दुल्ला के सवालों में दम था, और घाटी के लोग उससे काफी ज्यादा प्रभावित हो रहे थे। शेख अब्दुल्ला को उस समय महाराज का सबसे बड़ा विरोधी कहा जाता था।
Who was the First Prime Minister of Jammu and Kashmir

बात करते हैं राजनेता Sheikh abdullah की, जो 1977 से लेकर 1982 तक कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। शेख अब्दुल्ला उस समय मात्र 26 साल के थे जब 1931 में घाटी में वे मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में महाराजा हरि सिंह के विरोध में सामने आए।
इससे पहले की मुसलमानों की ओर से यह युवा प्रतिनिधि राजा तक अपनी बातें रख पाता, घाटी में दंगे शुरू हो गए I अब्दुल कादिर नाम के एक आंदोलनकारी को गिरफ्तार कर लिया गया और इस हिंसा के दौरान उसमें 21 कश्मीरी मारे गए।
कई बड़े नेताओं की गिरफ्तारी भी हुई। गिरफ्तारी के बाद वहां पर दंगे भड़क उठे थे। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच में झड़प हुई इस कारण Abdullah Sheikh को भी जेल जाना पड़ा। इस दंगे में हिंदुओं की दुकानों और उनके पवित्र स्थान को निशाना बनाकर उन्हें नष्ट करने की कोशिश की गई थी।
Sheikh Abdullah History
1932 में अब्दुल्ला ने All Jammu and Kashmir Muslim conference नाम का एक संगठन को बनाया। हालांकि इसके ठीक 6 साल बाद यह एक पार्टी के रूप में बदल गया और इसमें से मुस्लिम नाम को हटाकर अब्दुल्ला ने इस संगठन का नाम रखा All India Jammu and Kashmir National conference I
पार्टी के नेता इस बात के विरोध में रहे और उन्होंने पार्टी से अलग होने की कोशिश की, लेकिन Sheikh abdullah अपने फैसले पर टिके रहे। उन्होंने अपने संगठन का नाम बदला और इसके बाद हिंदू और सिख धर्म के लोग भी पार्टी से जुड़े।
भारत के आजाद होने पर साल 1947 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को यह सलाह दी गई की रियासतों का विलय कर दिया जाए। इस निर्णय को सभी रियासतों ने मान्य किया लेकिन समय बीत जाने के बाद भी महाराजा हरि सिंह की तरफ से कोई निर्णय नहीं आया।
दरअसल महाराजा हरि सिंह कश्मीर में बैठकर एक अलग ख्वाब बुन रहे थे। वह सपने देखे थे कि एक दिन कश्मीर स्विट्जरलैंड बनेगा।उधर भारत और पाकिस्तान दोनों ही कश्मीर को अपना बनाने पर तुले हुए थे।
सितंबर 1947 में भारत सरकार को कश्मीर से कुछ खुफिया जानकारियां मिली। 27 सितंबर 1947 को खुफिया जानकारी से घबराए हुए नेहरू ने पत्र के माध्यम से सरदार पटेल से संपर्क किया।
नेहरू ने पटेल को लिखा, मिली जानकारी के अनुसार पाकिस्तान की ओर से भारत में घुसपैठ करने की कोशिश की जा रही है, और इसका मुख्य रास्ता कश्मीर है। महाराजा हरि सिंह और उनकी सेवा घुसपैठियों के हमले को झेल नहीं पाएगी।
इसलिए अब समय है कि महाराज नेशनल कांफ्रेंस से मित्रता करें। और अब्दुल्ला की रिहाई का समय है, ताकि कश्मीर की जनता भारत के साथ खड़ी हो सके क्योंकि Abdullah Sheikh कश्मीर की जनता के फेवरेट है, अब्दुल्ला की रिहाई के बाद भारत को कश्मीर में मिलाया जाना संभव हो सकेगा।
29 सितंबर 1947 को भारत सरकार ने कोशिश की। इन कोशिशें का नतीजा निकला,शेख अब्दुल्ला जेल से बाहर आए। अब्दुल्ला ने बाहर आते ही महाराजा का विरोध शुरू कर दिया I
दरअसल अब्दुल्ला कहते थे कि “महाराज को अपनी सत्ता जनता को सौंपनी चाहिए और उसके बाद जनता निर्णय करेगी कि भारत या पाकिस्तान के साथ जाना चाहती है या स्वतंत्र रहना चाहती है।”
उधर भारत बार-बार महाराजा हरि सिंह को पाकिस्तानी घुसपैठियों से बचने के लिए आगाह कर रहा था। लेकिन महाराजा हरि सिंह भारत की चेतावनी को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। वह भी अब्दुल्ला की तरह आजाद कश्मीर का ख्वाब बुन रहे थे।
आखिरकार वही हुआ जिसका डर था,22 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के उत्तर हिस्से से हथियारबंद लोग भारत में घुसने लगे। धीरे-धीरे यह समूह बारामुला की तरफ से आगे बढ़ रहा था इन्होंने कश्मीर के एक बड़े हिस्से को अपने कब्जे में कर रखा था।
ऐसे में महाराजा हरि सिंह को कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तब उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखा, Abdullah Sheikh ने भी पत्र का समर्थन करते हुए भारत सरकार से हथियारबंद लोगों को जम्मू कश्मीर से हटाने की मांग।
इसके बाद लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर उस समय भारत सरकार ने सबसे पहले महाराजा हरि सिंह को कश्मीर विलय पत्र पर साइन करने के लिए मजबूर किया, और महाराजा ने कश्मीर विलय पत्र पर साइन भी किए।
कुछ ही समय बाद भारतीय फौज कश्मीर में थी और एक-एक करके सभी हथियारबंद दस्तों को कश्मीर से बाहर खदेड़ा गया। जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती अब एक नया रूप ले रही थी। जहां जवाहरलाल नेहरू अब्दुल्ला को पावरफुल देखना चाहते थे।
11 नवंबर 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने महाराजा हरि सिंह को एक पत्र लिखकर शेख अब्दुल्ला को वहां का प्रधानमंत्री बनाने की मांग की। मार्च 1948 में काफी दबाव के बाद महाराजा हरि सिंह ने अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया।
अब्दुल्ला घाटी के महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके थे। महाराजा कानूनी रूप से प्रमुख थे, लेकिन उनके पास कोई पावर नहीं थी। भारत सरकार ने Sheikh abdullah को सारी ताकत दे दी थी।
उधर कश्मीर का मामला यूनाइटेड नेशन में पहुंच गया था और भारत सरकार ने Article 370 के तहत कश्मीर को विशेष स्वायत्त राज्य का दर्जा दिया था।
Sheikh Abdullah and Jawaharlal Nehru Relation
कहा जाता है कि अब्दुल्ला जिस तरह से कश्मीर में सक्रिय थे जवाहरलाल नेहरू उनसे काफी प्रभावित थे I यही से जवाहरलाल नेहरू और Abdullah Sheikh की दोस्ती शुरू हो गई। शेख अब्दुल्ला ने साल 1946 में एक नए आंदोलन की शुरुआत की जिसका नाम था “ कश्मीर छोड़ो आंदोलन ” I
यह आंदोलन डोगरा राजवंश यानी महाराजा हरि सिंह का विरोध करती थी। उन्होंने राजा हरि सिंह से मांग की कि आप अपनी सत्ता जनता को सौंप दीजिए। इस आंदोलन के दौरान 20- 25 लोगों की मौत हुई। वही कश्मीर के महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को राजा का विरोध करने के जुर्म में 3 साल के लिए जेल भेज दिया।
लेकिन जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि अब्दुल्ला जेल न जाए इसके लिए उन्होंने कश्मीर जाने का निर्णय लिया, लेकिन महाराजा हरि सिंह ने उन्हें कश्मीर में आने नहीं दिया।
नेहरू अब्दुल्ला पर विश्वास करते थे, लेकिन यहां से अब्दुल्ला के कामों पर पंडित नेहरू को शक होने लगा था। दरअसल Sheikh abdullah कश्मीर को भारत में मिलाने के पक्ष में नहीं थे, महाराजा हरि सिंह की तरह वह भी आजाद कश्मीर एक अलग मुल्क के रूप में देखना चाहते थे।
अक्टूबर 1951 में एक भाषण के दौरान शेख अब्दुल्ला ने जब इस बात को स्वीकार कर लिया कि असल में वह कश्मीर को अलग मुल्क बनाना चाहते हैं, तब जवाहरलाल नेहरू ने मामले को गंभीरता से लिया I
उसके बाद एक ऐसी अफवाह उड़ी जिसमें यह कहा गया कि 21 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर की घोषणा कर देंगे, अरे UN उन्हें सुरक्षा देगा।
आखिरकार Abdullah Sheikh पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद 11 साल तक अब्दुल्ला जेल में रहे
अप्रैल 1964 में शेख अब्दुल्ला योजना के तहत रिहा किए गए ताकि कश्मीर मुद्दे के समाधान को लेकर वह जनता की आवाज बन सके। एक अलग मुल्क का सपना देखने वाले अब्दुल्ला अब स्वायत्त राज्य के पक्ष में थे, लेकिन जब तक यह मामला समाधान तक पहुंचता पंडित नेहरू की मौत हो गई।
और कश्मीर का मुद्दा जस का तस रह गया। कहा जाता है कि अब्दुल्ला नेहरू की मौत से बहुत दुखी थे, वे जानते थे कि नेहरू के बाद कश्मीर के मुद्दे को कोई नहीं सुलझा सकता है।
निष्कर्ष
कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री Sheikh Abdullah का जीवन एवं कार्य कश्मीर की राजनीति में उल्लेखनीय है। उन्होंने “कश्मीर के शेर” के रूप में अपनी पहचान बनाई और सामाजिक न्याय, शिक्षा, और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण कार्य किए। शेख़ अब्दुल्ला ने पहले कश्मीर को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक समाज बनाने का सपना देखा था I लेकिन समय के साथ उनकी Political line कठिन होती चली गई। पहले भारत के Article 370 का समर्थन और फिर बाद में उनके नजरबंद होने की घटनाओं ने उनको कई विवादास्पद मोड़ों पर लाकर खड़ा किया। इन सब के बावजूद Abdullah की विरासत आज भी कश्मीर की इतिहास में गहराई से मौजूद है।